मनुष्य की मृत्यु होना क्यों जरूरी
मनुष्य की मृत्यु होना क्यों जरूरी
मनुष्य अपनी माता से इस संसार में जन्म लेता है। आरम्भ में शैशव अवस्था होती है। समय के साथ उसके शरीर व ज्ञान में वृद्धि होती है। वह माता की बोली को सुनकर उसे समझने लगता है व कुछ समय बाद बोलने भी लगता है। शैशव अवस्था बीतने पर किशोर व कुमार अवस्था आरम्भ होती है। समय के साथ यह भी बीतती है। इस अवस्था में शरीर और बड़ा व बलवान हो जाता है। उसका ज्ञान भी अपनी माता व आचार्यों की शिक्षा से वृद्धि को प्राप्त होता है। इसके बाद युवावस्था आती है और मनुष्य इस अवस्था में रहते हुए अपनी शिक्षा व विद्या पूरी करता है। शरीर यौवनावस्था में पूर्ण वृद्धि को प्राप्त हो जाता है। इसके बाद शरीर की वृद्धि प्रायः नहीं होती। इस अवस्था में वह विवाह कर सृष्टि क्रम को जारी रखने में सहायक बनता है। जैसे उसके माता-पिता ने उसे जन्म दिया था, उसी प्रकार वह भी संसार में विद्यमान आत्माओं को अपनी धर्मपत्नी के द्वारा जन्म देकर उनका पालन व पोषण करता है। अपना पोषण करते हुए तथा माता-पिता एवं सन्तानों के पोषण के साथ वह वृद्धावस्था को प्राप्त होता है। वृद्धावस्था मुनष्य जीवन की अन्तिम अवस्था कही जाती है। इस अवस्था में दिन प्रतिदिन उसके शरीर में बल की न्यूनता होती जाती है। वह युवावस्था की तरह से काम नहीं कर सकता। अधिक आयु होने पर उसे कुछ रोग भी हो जाते हैं। उनका उपचार होता है। 60 से 80 या 85 वर्ष की आयु के मध्य अधिकांश स्त्री व पुरुषों की मृत्यु हो जाती है। परिवार के लोग व इष्ट-मित्र अपने स्वजन व मित्र आदि की मृत्यु पर दुःख व्यक्त करते हैं और कुछ दिनों बाद स्थिति सामान्य हो जाती है।
यह हमने एक मनुष्य के जीवन का संक्षिप्त वर्णन किया है। मनुष्य की मृत्यु क्यों होती है? यह प्रश्न प्रायः सभी के मन में उठता है। लोग इस प्रश्न को टाल जाते हैं और इस पर विचार करना निरर्थक माना जाता है। हमारे देश में ऋषि दयानन्द हुए जिन्होंने अपने घर में अपनी बड़ी बहिन व चाचा की मृत्यु देखी तो उन्हें वैराग्य हो गया। मृत्यु के भय से वह इतने व्याकुल हुए कि मृत्यु की औषधि की तलाश करने के लिये वह अपनी आयु के 22 वें वर्ष में घर से भाग गये और साधु, सन्तो, योगियों व विद्वानों की सगति कर ईश्वर के सच्चे स्वरूप और मृत्यु की औषधि की खोज करते रहे। उनसे पूर्व महात्मा बुद्ध को वृद्धावस्था की समस्याओं व मृत्यु की घटना देखकर वैराग्य हुआ था और उन्होंने भी अपना घर त्याग दिया था तथा ज्ञान की प्राप्ति के लिये वह वनों में चले गये थे।
मृत्यु क्यों होती है, इसका उत्तर महाभारत के एक अंग गीता नामक ग्रन्थ में मिलता है। गीता में श्री कृष्ण द्वारा दिया गया यह ज्ञान वेद व योग आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है एवं इससे जन्म व मृत्यु पर प्रकाश पड़ता है। मृत्यु का मुख्य कारण मनुष्य का अपना जन्म होता है। यदि जन्म न हुआ होता तो उसकी मृत्यु भी न होती। जन्म क्यों होता है? इसका उत्तर है कि क्योंकि मनुष्य की उसके जन्म से पूर्व कहीं मृत्यु हुई होती है। मृत्यु से पूर्व भी मनुष्य अनेक प्राणी योनियों में से किसी एक योनि में जीवन निर्वाह कर रहा होता है। वहां भी उसे शैशव, किशोर, युवा, प्रौढ़ तथा वृद्ध अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। वृद्धावस्था में वह युवावस्था की भांति कर्म करने में वह स्वतन्त्रता नहीं पाता जिसकी उसे आवश्यकता होती है। वृद्ध शरीर प्रायः रोगों का घर भी बन जाता है। अतः जीवात्मा को अपने पूर्व व वर्तमान जन्म के कर्मों का भोग कराने के लिये परमात्मा नया जीवन प्रदान करते हैं जिसके लिए उसे मृत्यु की प्रक्रिया से गुजर कर जन्म प्राप्त होता है। जन्म प्राप्त होने पर वह अपने पूर्वजन्म के संस्कारों के आधार पर जीवन आरम्भ कर अपने परिवेश के अनुसार ज्ञान प्राप्त कर अपना जीवन व्यतीत करता है। मृत्यु का कारण जन्म और जन्म का कारण कर्म वा पाप-पुण्य हुआ करते हैं। यह जन्म मरण का चक्र अनादि काल से चल रहा है और अनन्त काल तक इसी प्रकार चलता रहेगा। परमात्मा अनादि काल से बार-बार इसी निमित्त प्रकृति से इस सृष्टि का निर्माण करते आ रहे हैं और करते रहेंगे। सृष्टि 4.32 अरब वर्षों की अपनी आयु तक कार्यरत रहने के बाद प्रलय को प्राप्त होगी। 4.32 अरब वर्ष की प्रलय वा रात्रि होगी जिसके बाद ईश्वर पुनः सृष्टि की रचना करेंगे और यह जन्म व मरण अथवा बन्धन व मोक्ष का चक्र अनन्त काल तक चलता रहेगा अर्थात् इसका अन्त कभी नहीं होगा। अतः मृत्यु का कारण जन्म होता है, यह वेद, दर्शन, उपनिषद व गीता आदि ग्रन्थों से समझ में आ जाता है।
मनुष्य की आत्मा चेतन तत्व है। यह अनादि, अनन्त, अविनाशी, सूक्ष्म, अल्पज्ञ, ससीम, निराकार एवं एकदेशी है। यह सुख व दुःख का अनुभव करती है। सुख का मुख्य कारण मनुष्य के शुभ व श्रेष्ठ कर्म हुआ करते हैं और दुःख का कारण मनुष्य के पाप कर्म वा अशुभ कर्म हुआ करते हैं। शास्त्रों का अध्ययन, ऋषि-मुनियों व सच्चे ज्ञानियों की संगति से सुख व दुःख के कारण वा बन्धन-मोक्ष के सिद्धान्त को समझ लेने पर मनुष्य पाप करने से स्वयं को रोकता है। वह ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ एवं परोपकार आदि शुभ व पुण्य कर्मों को करता है जिससे उसे सुख प्राप्त होने सहित परजन्म में भी उत्तम मनुष्य योनि प्राप्त होती है। मनुष्य योनि जीवात्मा को मिलने वाले जन्म की सभी योनियों में उत्तम व श्रेष्ठ है। यह मोक्ष अर्थात् स्वर्ग तथा दुःखरूपी नरक का द्वार भी है। शास्त्रों में वर्णन है कि मनुष्य योनि में जन्म से भी श्रेष्ठ मोक्ष की प्राप्ति होती है जिसे प्राप्त कर लेने के बाद मनुष्य का 43 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक जन्म नहीं होता। यही कारण है कि प्राचीन काल से हमारे ऋषि-मुनि व विद्वान मोक्ष की प्राप्ति के लिये योगाभ्यास, समाधि की सिद्धि व परोपकार आदि कर्म किया करते थे। आज भी बहुत से लोग हैं जो इन तथ्यों से परिचित हैं, वह वैदिक रीति से ईश्वरोपासना, अहिंसायुक्त जीवनयापन, अग्निहोत्रयज्ञ का अनुष्ठान, परोपकार, निर्धन व निर्बलों की सेवा आदि कार्य करते हैं। वह वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन करते व दूसरों को कराते हैं। यह कार्य मोक्ष प्रदान कराने वाले होते हैं। इनसे मोक्ष प्राप्त हो जाने पर मनुष्य जन्म व मरण के बन्धनों से बहुत लम्बी अवधि तक मुक्त हो जाता है। मोक्ष का अर्थ जीवात्मा के सभी दुःखों की निवृत्ति का होना है। मोक्ष की अवस्था में जीवात्मा आनन्दस्वरूप ईश्वर के सान्निध्य में रहता है और पूरे ब्रह्माण्ड का विचरण कर सकता है। परमात्मा के सान्निध्य में उसे किसी प्रकार दुःख नहीं होता अपितु वह सब प्रकार से सुखी व आनन्द से युक्त रहता है। यही जीवों व मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। जिसने इसे प्राप्त कर लिया वह भाग्यशाली है और जिसने मांसाहार व दूसरों के प्रति अन्याय आदि के द्वारा अपना परजन्म बिगाड़ लिया वह अभागा है। अतः मनुष्य योनि में हमें विद्यायुक्त सत्ग्रन्थों का स्वाध्याय तथा सच्चे विद्वानों की संगति करनी चाहिये तभी हम आत्मा की उन्नति को प्राप्त होकर सभी दुःखों से मुक्त हो सकते हैं।
गीता ग्रन्थ में योगेश्वर श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को यह भी कहा है कि किसी के मरने पर उसके लिये शोक नहीं करना चाहिये। इसका कारण यह है कि कभी किसी आत्मा का अभाव व नाश नहीं होता अपितु मृतक आत्मा ईश्वर के सान्निध्य में रहता है। अगला जन्म होने तक उसे किसी प्रकार का शोक व दुःख भी नहीं होता। अतः मृतक के परिवारजनों को भी शोक व दुःख नहीं मनाना चाहिये अपितु ईश्वर की चर्चा व उपासना करनी चाहिये जिससे शोक नष्ट होता है। हमने इस लेख में मृत्यु की थोड़ी सी चर्चा की है। हमने जो कहा व लिखा है उसका आधार चार वेद, उपनिषद और दर्शन आदि ग्रन्थों सहित गीता पुस्तक का ज्ञान है। हम आशा करते हैं कि हम सब जन्म व मृत्यु के रहस्य को जानकर अपनी व अपने प्रियजनों की मृत्यु होने पर शोक से रहित होकर अपने सत्कर्मों का निर्वाह करेंगे। यही हमारा कर्तव्य है।
मनुष्य अपनी माता से इस संसार में जन्म लेता है। आरम्भ में शैशव अवस्था होती है। समय के साथ उसके शरीर व ज्ञान में वृद्धि होती है। वह माता की बोली को सुनकर उसे समझने लगता है व कुछ समय बाद बोलने भी लगता है। शैशव अवस्था बीतने पर किशोर व कुमार अवस्था आरम्भ होती है। समय के साथ यह भी बीतती है। इस अवस्था में शरीर और बड़ा व बलवान हो जाता है। उसका ज्ञान भी अपनी माता व आचार्यों की शिक्षा से वृद्धि को प्राप्त होता है। इसके बाद युवावस्था आती है और मनुष्य इस अवस्था में रहते हुए अपनी शिक्षा व विद्या पूरी करता है। शरीर यौवनावस्था में पूर्ण वृद्धि को प्राप्त हो जाता है। इसके बाद शरीर की वृद्धि प्रायः नहीं होती। इस अवस्था में वह विवाह कर सृष्टि क्रम को जारी रखने में सहायक बनता है। जैसे उसके माता-पिता ने उसे जन्म दिया था, उसी प्रकार वह भी संसार में विद्यमान आत्माओं को अपनी धर्मपत्नी के द्वारा जन्म देकर उनका पालन व पोषण करता है। अपना पोषण करते हुए तथा माता-पिता एवं सन्तानों के पोषण के साथ वह वृद्धावस्था को प्राप्त होता है। वृद्धावस्था मुनष्य जीवन की अन्तिम अवस्था कही जाती है। इस अवस्था में दिन प्रतिदिन उसके शरीर में बल की न्यूनता होती जाती है। वह युवावस्था की तरह से काम नहीं कर सकता। अधिक आयु होने पर उसे कुछ रोग भी हो जाते हैं। उनका उपचार होता है। 60 से 80 या 85 वर्ष की आयु के मध्य अधिकांश स्त्री व पुरुषों की मृत्यु हो जाती है। परिवार के लोग व इष्ट-मित्र अपने स्वजन व मित्र आदि की मृत्यु पर दुःख व्यक्त करते हैं और कुछ दिनों बाद स्थिति सामान्य हो जाती है।
यह हमने एक मनुष्य के जीवन का संक्षिप्त वर्णन किया है। मनुष्य की मृत्यु क्यों होती है? यह प्रश्न प्रायः सभी के मन में उठता है। लोग इस प्रश्न को टाल जाते हैं और इस पर विचार करना निरर्थक माना जाता है। हमारे देश में ऋषि दयानन्द हुए जिन्होंने अपने घर में अपनी बड़ी बहिन व चाचा की मृत्यु देखी तो उन्हें वैराग्य हो गया। मृत्यु के भय से वह इतने व्याकुल हुए कि मृत्यु की औषधि की तलाश करने के लिये वह अपनी आयु के 22 वें वर्ष में घर से भाग गये और साधु, सन्तो, योगियों व विद्वानों की सगति कर ईश्वर के सच्चे स्वरूप और मृत्यु की औषधि की खोज करते रहे। उनसे पूर्व महात्मा बुद्ध को वृद्धावस्था की समस्याओं व मृत्यु की घटना देखकर वैराग्य हुआ था और उन्होंने भी अपना घर त्याग दिया था तथा ज्ञान की प्राप्ति के लिये वह वनों में चले गये थे।
मृत्यु क्यों होती है, इसका उत्तर महाभारत के एक अंग गीता नामक ग्रन्थ में मिलता है। गीता में श्री कृष्ण द्वारा दिया गया यह ज्ञान वेद व योग आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है एवं इससे जन्म व मृत्यु पर प्रकाश पड़ता है। मृत्यु का मुख्य कारण मनुष्य का अपना जन्म होता है। यदि जन्म न हुआ होता तो उसकी मृत्यु भी न होती। जन्म क्यों होता है? इसका उत्तर है कि क्योंकि मनुष्य की उसके जन्म से पूर्व कहीं मृत्यु हुई होती है। मृत्यु से पूर्व भी मनुष्य अनेक प्राणी योनियों में से किसी एक योनि में जीवन निर्वाह कर रहा होता है। वहां भी उसे शैशव, किशोर, युवा, प्रौढ़ तथा वृद्ध अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। वृद्धावस्था में वह युवावस्था की भांति कर्म करने में वह स्वतन्त्रता नहीं पाता जिसकी उसे आवश्यकता होती है। वृद्ध शरीर प्रायः रोगों का घर भी बन जाता है। अतः जीवात्मा को अपने पूर्व व वर्तमान जन्म के कर्मों का भोग कराने के लिये परमात्मा नया जीवन प्रदान करते हैं जिसके लिए उसे मृत्यु की प्रक्रिया से गुजर कर जन्म प्राप्त होता है। जन्म प्राप्त होने पर वह अपने पूर्वजन्म के संस्कारों के आधार पर जीवन आरम्भ कर अपने परिवेश के अनुसार ज्ञान प्राप्त कर अपना जीवन व्यतीत करता है। मृत्यु का कारण जन्म और जन्म का कारण कर्म वा पाप-पुण्य हुआ करते हैं। यह जन्म मरण का चक्र अनादि काल से चल रहा है और अनन्त काल तक इसी प्रकार चलता रहेगा। परमात्मा अनादि काल से बार-बार इसी निमित्त प्रकृति से इस सृष्टि का निर्माण करते आ रहे हैं और करते रहेंगे। सृष्टि 4.32 अरब वर्षों की अपनी आयु तक कार्यरत रहने के बाद प्रलय को प्राप्त होगी। 4.32 अरब वर्ष की प्रलय वा रात्रि होगी जिसके बाद ईश्वर पुनः सृष्टि की रचना करेंगे और यह जन्म व मरण अथवा बन्धन व मोक्ष का चक्र अनन्त काल तक चलता रहेगा अर्थात् इसका अन्त कभी नहीं होगा। अतः मृत्यु का कारण जन्म होता है, यह वेद, दर्शन, उपनिषद व गीता आदि ग्रन्थों से समझ में आ जाता है।
मनुष्य की आत्मा चेतन तत्व है। यह अनादि, अनन्त, अविनाशी, सूक्ष्म, अल्पज्ञ, ससीम, निराकार एवं एकदेशी है। यह सुख व दुःख का अनुभव करती है। सुख का मुख्य कारण मनुष्य के शुभ व श्रेष्ठ कर्म हुआ करते हैं और दुःख का कारण मनुष्य के पाप कर्म वा अशुभ कर्म हुआ करते हैं। शास्त्रों का अध्ययन, ऋषि-मुनियों व सच्चे ज्ञानियों की संगति से सुख व दुःख के कारण वा बन्धन-मोक्ष के सिद्धान्त को समझ लेने पर मनुष्य पाप करने से स्वयं को रोकता है। वह ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ एवं परोपकार आदि शुभ व पुण्य कर्मों को करता है जिससे उसे सुख प्राप्त होने सहित परजन्म में भी उत्तम मनुष्य योनि प्राप्त होती है। मनुष्य योनि जीवात्मा को मिलने वाले जन्म की सभी योनियों में उत्तम व श्रेष्ठ है। यह मोक्ष अर्थात् स्वर्ग तथा दुःखरूपी नरक का द्वार भी है। शास्त्रों में वर्णन है कि मनुष्य योनि में जन्म से भी श्रेष्ठ मोक्ष की प्राप्ति होती है जिसे प्राप्त कर लेने के बाद मनुष्य का 43 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक जन्म नहीं होता। यही कारण है कि प्राचीन काल से हमारे ऋषि-मुनि व विद्वान मोक्ष की प्राप्ति के लिये योगाभ्यास, समाधि की सिद्धि व परोपकार आदि कर्म किया करते थे। आज भी बहुत से लोग हैं जो इन तथ्यों से परिचित हैं, वह वैदिक रीति से ईश्वरोपासना, अहिंसायुक्त जीवनयापन, अग्निहोत्रयज्ञ का अनुष्ठान, परोपकार, निर्धन व निर्बलों की सेवा आदि कार्य करते हैं। वह वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन करते व दूसरों को कराते हैं। यह कार्य मोक्ष प्रदान कराने वाले होते हैं। इनसे मोक्ष प्राप्त हो जाने पर मनुष्य जन्म व मरण के बन्धनों से बहुत लम्बी अवधि तक मुक्त हो जाता है। मोक्ष का अर्थ जीवात्मा के सभी दुःखों की निवृत्ति का होना है। मोक्ष की अवस्था में जीवात्मा आनन्दस्वरूप ईश्वर के सान्निध्य में रहता है और पूरे ब्रह्माण्ड का विचरण कर सकता है। परमात्मा के सान्निध्य में उसे किसी प्रकार दुःख नहीं होता अपितु वह सब प्रकार से सुखी व आनन्द से युक्त रहता है। यही जीवों व मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। जिसने इसे प्राप्त कर लिया वह भाग्यशाली है और जिसने मांसाहार व दूसरों के प्रति अन्याय आदि के द्वारा अपना परजन्म बिगाड़ लिया वह अभागा है। अतः मनुष्य योनि में हमें विद्यायुक्त सत्ग्रन्थों का स्वाध्याय तथा सच्चे विद्वानों की संगति करनी चाहिये तभी हम आत्मा की उन्नति को प्राप्त होकर सभी दुःखों से मुक्त हो सकते हैं।
गीता ग्रन्थ में योगेश्वर श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को यह भी कहा है कि किसी के मरने पर उसके लिये शोक नहीं करना चाहिये। इसका कारण यह है कि कभी किसी आत्मा का अभाव व नाश नहीं होता अपितु मृतक आत्मा ईश्वर के सान्निध्य में रहता है। अगला जन्म होने तक उसे किसी प्रकार का शोक व दुःख भी नहीं होता। अतः मृतक के परिवारजनों को भी शोक व दुःख नहीं मनाना चाहिये अपितु ईश्वर की चर्चा व उपासना करनी चाहिये जिससे शोक नष्ट होता है। हमने इस लेख में मृत्यु की थोड़ी सी चर्चा की है। हमने जो कहा व लिखा है उसका आधार चार वेद, उपनिषद और दर्शन आदि ग्रन्थों सहित गीता पुस्तक का ज्ञान है। हम आशा करते हैं कि हम सब जन्म व मृत्यु के रहस्य को जानकर अपनी व अपने प्रियजनों की मृत्यु होने पर शोक से रहित होकर अपने सत्कर्मों का निर्वाह करेंगे। यही हमारा कर्तव्य है।
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